Tuesday, April 1, 2008

स्वपनलोक

प्रवेश
जब मेरी आंख खुली, तो मैंने अपने आपको एक बिलकुल ही अजनबी वातावरण में पाया। मुझे उम्मीद थी कि मैं अपने आपको किसी समुद्री तट पर रेत में लिथड़ा हुआ पाऊंगा। मेरी आखिरी याद पानी के थपेड़े खा कर समुद्र में डूबने की थी। मैं तीस-चालीस घंटों से एक तख्ते पर पता नहीं किधर जा रहा था। चारों तरफ पानी था। कहीं कोई दिशा नहीं दिखाई पड़ रही थी। नीचे नीला समुद्र था और ऊपर नीला आसमान। समुद्र की लहरें जिधर ले जातीं, तख्ता उसी दिशा में बहने लगता। जैसे उसकी कोई स्वतंत्र इच्छाशक्ति न हो। इसमें हवा के रुख की भी भूमिका थी। कोई कितना भी शक्तिशाली हो, आदमी की जिंदगी शायद ऐसे ही भटकती रहती है। भूख और प्यास से बुरा हाल था। खाने को पास में कुछ भी नहीं था। वैसे तो मेरे चारों तरफ पानी ही पानी था, पर उसे पिया नहीं जा सकता था। प्यास से पीड़ित हो कर मैंने दो-तीन बार अंजुरी में ले कर पानी पिया। इसमें खतरा भी था, क्योंकि जैसे ही मैं पानी लेने के लिए हाथ थोड़ा नीचे करता, तख्ता उधर ही झुकने लगता। लेकिन प्यास बुझाने के लिए यह जोखिम उठाना जरूरी था। बहुत होता तो यही कि मैं समुद्र में डूब जाता। प्यास से भी तो मैं मर ही रहा था। उफ, वह पानी था या नमक का गाढ़ा शरबत। एक घूंट भी पिया न गया। मुंह में डाल कर उगल देना पड़ा। दूसरी बार तो उलटी-सी लगने लगी। तब मैंने अपनी किस्मत से समझौता कर लिया। तख्ता इतना बड़ा था कि मैं उस पर सो सकता था। चौबीस घंटे तक तो मैं किसी तरह जगा रहा। लेकिन जब मेरी कलाई घड़ी ने सूचना दी कि मुझे इस तरह दिशाहीन-लक्ष्यहीन भटकते हुए तीस घंटे हो चुके हैं, तो सोने के लिए मनोवैज्ञानिक दबाव भी पड़ने लगा। पर यह आसान नहीं था। जब चारों ओर से मौत का बेआवाज साइरन बज रहा हो, तो किसे नींद आ सकती है? जब भी मेरी पलकें झपकतीं, कुछ पलों के बाद ही नींद अपने आप हवा हो जाती। इसमें डर का तत्व तो था ही, आशा का भी कुछ दबाव था। कहीं ऐसा न हो कि कोई बड़ी लहर आए और मुझे अपने में समो ले या जमीन का कोई टुकड़ा आसपास हो और मैं सोता रह जाऊं। इस तरह अधसोई-अधजगी हालत में मैं एक-एक क्षण जी (या मर) रहा था। 'मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि आप जग गए!' एक बहुत ही महीन और मीठी आवाज सुनाई पड़ी। अवचेतन ने बताया, यह आवाज किसी सुंदर युवती की ही हो सकती है। यह मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। मैंने पलकें थोड़ी और खोलीं, तो मेरे सामने पच्चीस-छब्बीस साल की एक आकर्षक युवती खड़ी थी। उसके कोमल चेहरे पर हलकी-सी मुसकान थी। इस एक इंच मुसकान में कुतूहल, आश्वासन और अनुराग, तीनों घुले-मिले थे। मेरा आत्मविश्वास लौटने लगा। मुझे अनुभव हुआ, मैं जहां भी होऊं, सुरक्षित हूं। चेतना के साथ मेरी भाषा भी लौट आई। अपने नए परिवेश पर और अधिक ध्यान देने के बजाय मुझे अपनी प्यास की याद आई। वह मेरे गले में पता नहीं कब से हहरा रही थी। मैंने मानो कराहते हुए कहा, 'क्या एक गिलास पानी मिल सकेगा?' 'अवश्य।' शुद्ध और संतुलित आवाज ऐसे खनकी जैसे किसी रेडियो उद्घोषिका या टीवी एंकर की हो। जब पानी का गिलास आया, तो एक नहीं, तीन गिलास पानी मैं एक के बाद एक गटक गया। इतनी राहत मिली जैसे मैं किसी प्रियजन को श्मशान घाट पर फूंक कर आया होऊं और वह मेरे घर के बाहर मुसकराता हुआ स्वागत करते हुए मिले। जी भर कर पानी पी लेने के बाद गिलास की ओर मेरा ध्यान गया। वह पकी हुई मिट्टी का था। कहीं मैं किसी आदिवासी द्वीप पर तो नहीं आ गया हूं? लेकिन उस युवती की खनकदार आवाज इस संदेह में बड़ा-सा सुराख कर रही थी। अब मैंने युवती को ध्यान से देखा। उसका रंग सांवला था। त्वचा मानो धूप की सेंकी हुई हो। नाक-नक्श नुकीले थे। काले और सघन बाल पीठ पर लहरा रहे थे। उनमें कुछ पीले फूल खोंसे हुए थे। कानों में भी फूलों के डंठल खुबे हुए थे। खुली बांहों में लहर-सी थी। मझोले आका के सुघड़ स्तन संक्षिप्त चोली से ढके हुए थे। कमर में भी थोड़ा-सा ही कपड़ा था। बाकी देह सहज भाव से नग्न थी। मेरे रोम-रोम में पुलक भर आई। युवती की मुस्कान को वहीं छोड़ कर मैं कमरे का मुयायना करने लगा। कमरा क्या था, सुंदर-सी कुटी थी। दीवारों की जगह बांस की खपचियां थीं, जिन्हें लाल मिट्टी से पोता हुआ था। इतनी सफाई के साथ जैसे प्लास्तर किया हुआ हो। दो दिशाओं में छोटी-छोटी खिड़कियां थीं मानो वे कुटी की खुली हुई आंखें हों। एक कोनें में लकड़ी की नक्काशीदार कुरसी थी। मेज पर कुछ किताबें तरतीब से रखी हुई थीं। दो-तीन कलमेंें भी। दीवारों पर कैलेंडर या कोई चित्र नहीं। न दीवार घड़ी। इन चीजों की अभ्यस्त मेरी आंखों को वह सुकून मिला जो किसी शहराती को खुले आकाश तले मिलता है। कहीं कोई पलंग नहीं था। इससे मुझे याद आया कि मैं भी चटाई पर लेटा हुआ था। मेरे सिरहाने काठ का एक आयताकार टुकड़ा था, जिस पर कोई मुलायम चीज रखी हुई थी। बाद में मालूम हुआ कि उसमें सूखे हुए पत्ते भरे हुए थे। युवती जमीन पर बिना हिले-डुले बैठी हुई थी। अगर उसने बात न की होती, तो वह किसी प्रतिमा की तरह लगती। 'आप बहुत कमजोरी अनुभव कर रहे होंगे। कृपया ये फल खा लें।' जब मैं कमरे का भूगोल निरख रहा था, उसने पता नहीं कहां से पत्ते के एक स्वच्छ दोने में फलों के टुकड़ों का प्रबंध कर लिया था। शायद इसकी तैयारी उसने पहले से कर रखी थी और मेरे जगने का इंतजार कर रही थी। अब मैं उठ कर बैठ गया। प्यास मिटी तो भूख का नंबर आया। मैंने दोना उसके हाथ से ले लिया। शिष्टाचारवश पूछा, 'आप भी कुछ लीजिए न !' 'जब आप सो रहे थे, तभी मैंने नाश्ता कर लिया था। आप संकोच न करें। मुझे अफसोस है कि आज मेरे पास यही कुछ है। काजू खत्म हो गए हैं। आपको शायद ही यह सब रुचे, पर मजबूरी है। हम दीन-हीन लोग ठहरे। दिल्ली जैसा भव्य नाश्ता मैं भला कहां से ला सकती हूं!' युवती के चेहरे की मुसकान थोड़ी फैल गई थी। उसकी पूरी अभिव्यक्ति में दीनता या हीनता कहीं न थी। सादगी की अपनी समृद्धि होती है। वह उसके चेहरे पर ही नहीं, पूरे अस्तित्व पर यहां से वहां तक भरपूर फैली हुई थी। दिल्ली ! इसे कैसे पता चला कि मैं दिल्ली में रहता हूं। जादू की एक नहीं कई परतें थीं, जो धीरे-धीरे खुल रही थीं।
पहला आश्चर्य
तभी भिड़काया हुआ दरवाजा दनाक से खुला और एक पूर्ण नग्न युवती ने प्रवेश किया। दरवाजा खुलने की हलकी-सी आवाज होते ही सुजाता ने पीछे की ओर देखा। नवागंतुक ने उसके गाल पर चुंबन जड़ते हुए कहा, 'अरे, तुआ आज सबेरे प्रात: वंदना में नहीं आए! तुआ की तबीयत तो ठीक है, सुजाता?' 'तबीयत बिलकुल सही है।' 'तो फिर?' 'कारण तुम्हारे सामने है।' सुजाता ने मेरी तरफ इशारा किया। अभी तक उस युवती की नजर मुझ पर नहीं पड़ी थी। दरअसल, उस पर एक भरपूर निगाह डालने के बाद मैंने दीवार की तरफ मुंह फेर लिया था। उसने हठात मुझ पर नजर डाली और सचेत हो आई। सुजाता की ओर देख कर उसने पूछा, 'यह हजरत कौन हैं? इन्हें पहले तो कभी नहीं देखा!' सुजाता ने स्मित के साथ कहा, 'अनुमान लगाओ।' 'पहले इसका मुखड़ा तो देखें।' मुझे लगा, करवट बदल लेनी चाहिए। मैंने वही किया। आगंतुक ने कुछ क्षणों तक निरखने-परखने के बाद कहा, 'न्न, हमारी बुद्धि जवाब दे रही है। और हां, तुआ ने ये कपड़े क्यों पहन रखी हैं? आज तो कोई पर्व नहीं है।' 'खुशबू, इसका कारण भी यही हैं। ये पानी में बहते हुए आए हैं। जहां रहते हैं, वहां शरीर को ढक कर रखते हैं। खासकर औरतें। हमें देख कर इन्हें शॉक न लगे, इसलिए मैंने कुछ हिस्से ढक लीं।' तो इसका नाम खुशबू है। इस अजनबी द्वीप में सारे नाम हमारे समाज जैसे क्यों? कहीं यह कोई नाटक तो नहीं है जो मुझे बहकाने के लिए खेला जा रहा है? कहीं मैं बहते-बहते चेन्नई की ओर तो नहीं निकल आया हूं और ये किसी न्यूड कॉलोनी की मेंबर हैं? मैं अपनी कल्पना शक्ति पर पूरा दबाव डाल रहा था। खुशबू की उपस्थिति मुझे भली लग रही थी, पर उसकी भाषा मेरा मूड बिगाड़ रही थी। { पहन रखी और ढक रखी ’ – ये प्रयोग बहुत अटपटे लग रहे थे। खुशबू से बात करते समय सुजाता की भाषा भी बदल गई थी। और, यह तुआ क्या बला है? 'तब तो हमने आ कर बहुत बुरा की!' कुटी में आने के बाद वह मानो पहली बार शरमाई। उसने अपने दोनों हाथों से अपनी लाज ढकने की कोशिश की। लेकिन रूमाल की ओट करने से कहीं चांदनी को थामा जा सकता है? कुछ ही पल में अपनी कोशिश की व्यर्थता को समझ कर वह अपने स्वाभाविक रूप में लौट आई। वह सुजाता से कहीं ज्यादा सुगढ़ और सुंदर थी। उसका भी रंग हलका-सा मटमैला था। जैसे गोरी त्वचा वर्षों तक धूप में सिंकी हुई हो। खुशबू ने मेरी ओर मुसकरा कर देखा। उसके चेहरे की अदृश्य लकीरें कह रही थीं, 'बच्चू, तुम यहां नए-नए हो। अभी तुमने देखा ही क्या है? मुझे जी भर कर देख लो। आगे बहुत कुछ देखने को मिलेगा।' 'सुजाता, हम अभी चलते हैं। एक नई उपन्यास आई है -- मुझे चांद चाहिए। उसे रात भर पढ़ते रहे। बहुत ही दिलचस्प है। अभी आधी ही पढ़ी है। जब तक उसे खत्म नहीं कर लेते, तब तक हमें चैन नहीं मिलेगी।' फिर मेरी ओर देख कर, 'आप कभी सुरेंद्र वर्मा से मिले हैं? यह उपन्यास उन्हीं की, मेरा मतलब है, उन्हीं का है।' 'हां, एक बार दिल्ली आए थे, तब उनसे मुलाकात हुई थी।' मुझे अचानक 'मुझे चांद चाहिए' के लेखक से हलकी-सी ईर्ष्या हो आई। तो जनाब यहां भी मौजूद हैं! 'और हां, आज दोपहर की भोजन के पहले सुधार गृह में एक बालक की इलाज होनी है। वहां नहीं जाओगे?' 'कोई खास रुचि तो नहीं है। पर अपनी मेहमान को वह दृश्य दिखाने के लिए आ जाएंगे। इनके लिए यह अनोखा दृश्य होगी।' 'जरूर। ये जहां से आए हैं, वहां तो अपराध करनेवालों को अछूत माना जाता है। जैसे वे किसी और दुनिया से आए हों। … इनकी शिक्षा की शुरुआत हम भी थोड़ा कर देंं।' वह मेरे नजदीक आई और मेरे ललाट को चूमने के बाद हम दोनों को हाथ हिलाते हुए 'टा टा' कह कर चलती बनी। बाहर निकल कर उसने दरवाजा उड़का दिया था। होश आने के बाद मैंने नहाया-धोया नहीं था। मैंने सोचा, उसके होंठों को समुद्र के नमकीन पानी का कड़वा स्वाद मिला होगा। उसके जाने के बाद मैंने सुजाता से पूछा, 'सुजाता जी, यह तुआ क्या बला है?' 'क्या अभी ही सब कुछ जान लेंगे?' a'आप चाहें तो बता दें। आप लोगों का स्त्रलिंग-पुल्लिंग भी मेरी समझ में नहीं आ रहा है। आप अभी ही स्पष्ट कर देंगी, तो मुझे यहां की भाषा समझने में मदद मिलेगी।' सुजाता ने अंगड़ाई ली। इससे उसकी चोली खुल गई और उसकी गोद में जा गिरी। उसके स्तनों की आंच को महसूस किए मैं नहीं रह सका। सुजाता को जैसे कुछ महसूस ही नहीं हुआ। उसने कहा, 'मेरा खयाल है, ऐसे ही ठीक है। दरअसल, कपड़ों में मुझे अटपटा लग रहा था।' मैंने मजाक में कहा, 'आप चाहें तो पूरी तरह सहज हो सकती हैं।' मेरी नजर उसकी पतली-सी कमर के नीचे थी। 'मुझे क्या दिक्कत हो सकती है! हम तो ऐसे ही रहते हैं। पर मैं आपको पहली ही मुलाकात में ज्यादा शॉक नहीं देना चाहती। आप भी क्या सोचेंगे, कैसे मतवालों से पाला पड़ा है। यह बात भी है कि तब आपका सारा ध्यान मेरी देह की ओर ही लगा रहेगा और आप मेरी बात ठीक से नहीं सुन पाएंगे।' मेरे पास इस स्थिति का सामना करने के लिए एक झेंप भरी मुसकराहट के अलावा कुछ भी नहीं था। 'ऐसा कीजिए, आप नहा-धो लीजिए। फिर मैं आपको बताती हूं। आपका किस्सा भी सुनना है। लेकिन यहां बाथरूम नहीं है। आपको पास की नदी तक जाना पड़ेगा। चिंता न करें, रास्ता में कोई नहीं मिलेगा। सभी अपने काम-काज में लगे होंगे। और फिर नदी एकदम बगल में है।' मुझे अपनी स्थिति का ध्यान हो आया। मैंने पूछा, 'नहा तो लूं, पर नहाने के बाद मैं पहनूंगा क्या?' 'ओह, मैं भूल ही गई थी कि आप सभ्य दुनिया से आए हैं।' 'सभ्य' के इर्द-गिर्द कॉमा लगा था या नहीं, इसकी कल्पना में नहीं कर पाया। मेरी नजर उसका पीछा कर रही थी। वह एक कोने मैं गई। वहां से एक अच्छी तरह तह किया हुआ कपड़ा ला कर मेरे सामने रख दिया। बोली, 'आपके यहां इसे शायद लुंगी या तहमत कहते हैं। लेकिन यह ऊंचाई में आपके घुटने तक ही आएगा। अभी तो इसी से काम चलाइए। बाद में देखती हूं।' 'बाद में शायद कोई दिक्कत न हो। लिव इन रोम एज रोमन्स डू।' मैं ठठा कर हंस पड़ा। उसे भी हंसी आ गई। उसने कहा, 'हमारे यहां इसे इस तरह कहते हैं, आसमान में जाओ, तो तुआ को, मेरा मतलब है, तुम्हें पक्षी की तरह उड़ना होगा।' 'तो तुआ का मतलब तुम होता है!' 'नहीं, यह उससे आगे का मामला है। इस बारे में शाम को बात करेंगे।' जुर्म और सजा बाहर निकला, तो अचानक लगा जैसे चमड़ी झुलस जाएगी। शिद्दत की गर्मी थी। मानो सूर्य आग उगल रहा हो। ऐसी गर्मी मैंने पहली बार देखी थी। शुक्र था कि हवा तेज से कुछ कम रफ्तार से चल रही थी। वह आर्द्र थी। शायद समुद्र से हो कर आ रही हो। इसलिए थोड़ी राहत थी। लेकिन क्या खाक राहत थी! बिना नहाए ही शरीर पसीने से भीग गया। सुजाता का दिया हुआ वस्त्र -- क्या यह उसका घाघरा था? या स्कर्ट? -- मैंने सिर पर लपेट लिया। कुछ आराम मिला। कुटी के बाईं तरफ लगभग सौ कदम चलते ही चमकती हुई नदी दिखाई पड़ने लगी। मैंने अपने देश में कई नदियां देखी थीं। वे नदियां भी, जिनमें सिक्का डालो तो वह तले तक दिखाई पड़ता है। लेकिन मेरे सामने जो नदी मद्धम-मद्धम बह रही थी, वह अपूर्व थी। जैसे पिघली हुई चांदी बही चली जा रही हों। उसका रंग थोड़ा नीला जरूर था। शायद उसके पानी पर नीले आसमान की छाया पड़ रही थी। नदी के थोड़ा और नजदीक पहुंचा, तो मुझसे रहा नहीं गया। मैं दौड़ कर नदी में कूद पड़ा। पानी थोड़ा गर्म था, लेकिन आह, ऐसी शांति मैंने इसके पहले कभी महसूस नहीं की थी। कुछ मिनटों तक पानी में खड़े रहने का सुख लेता रहा। फिर याद आया, कपड़े तो उतार लिए होते। उन्हें धोना था। हाथ अपने आप साबुन खोजने लगे। सुजाता साबुन देना शायद भूल गई। चलो, ऐसे ही काम चलाते हैं। पैंट, बुश्शर्ट, बनियान और रूमाल को निरे पानी से फींच कर किनारे जमीन पर बिछा दिया। अब मैं पूरी तरह निर्वस्त्र था। घूम कर चारों ओर देखा। कहीं कोई नहीं था। मैं जल्दी से नही में वापस लौट गया। पानी की तह में नजर गई, तो मैं दहल गया। मेरी निर्वस्त्रा में कोई फर्क नहीं पड़ा था। कहीं कोई आ न जाए, इस डर से मैंने फुर्ती से नहाया और हालांकि पानी में बहुत सुकून मिल रहा था, उसका लोभ छोड़ते हुए किनारे पर आ गया। सुजाता के कपड़े को तहमत की तरह बांध लिया, तब जा कर जान में जान आई। इसी बीच मेरे कपड़े सूख कर पपड़िया गए थे। मैंने उन्हें उठाया और घर लौटने लगा। घर? हां, सुजाता का घर ही अब मेरा भी घर था। वह दरवाजे पर मेरा इंतजार कर रही थी। उसने मेरे हाथ से कपड़े ले लिए। कहा, 'इस्तरी करने का तो कोई प्रबंध नहीं है, पर इन्हें इस तरह तहा दूंगी कि आपको इन्हें पहनते हुए शर्म नहीं आएगी।' कुटी में दाखिल होते ही गर्मी का असर कम होता लगा। बाद में मुझे मालूम हुआ कि उसे पत्तों से इस तरह छाया गया था कि वह सहज ही वातानुकूलित हो गया था। 'क्या आप तुरंत भोजन करेंगे? इस बीच मैंने सारा इंतजाम कर लिया है।' 'कुछ देर पहले ही तो नाश्ता किया था। भूख तो लगने दीजिए।' 'तो फिर मेरे साथ चलिए। हम आपको यहां की दंड प्रणाली दिखा लाएं।' 'लेकिन मेरे कपड़े? क्या मुझे इसी पोशाक में चलना होगा? ' 'नहीं, आप अपने पूरे कपड़े पहन लीजिए। जो भी मिलेगा, मैं उसे समझा दूंगी। वैसे, यहां एक-दूसरे के निजी जीवन में कोई दखल नहीं देता।' 'लेकिन मैं तो अभी आपके सार्वजनिक जीवन में हूं!' 'सर, अपने लेखों की तरह आप इतनी बारीकी में मत जाइए। आगे जो भी होगा, वह मेरी जिम्मेदारी है। इतना निश्चित समझिए कि न कोई आप पर हंसेगा न कोई आपसे सवाल करेगा। यहां हम एक-दूसरे का पूरा सम्मान करते हैं और किसी को मूर्ख नहीं मानते।' 'वह मूर्ख हो, तब भी नहीं?' मैंने चुटकी ली। 'हां, वह मूर्ख हो, तब भी नहीं।' मैंने थोड़े साहस और थोड़ी बुद्धिमानी से काम लिया। हालांकि संकोच तो बहुत हो रहा था, पर मैंने शर्ट उतार दी, जिसे उसने तह लगा कर एक कोने में रख दिया। बनियान का भी यही हश्र हुआ। सिर्फ पैंट पहन कर मैं चलने के लिए तैयार हो गया। सुजाता हस्बमामूल अपनी पोशाक में थी, जिसका अर्थ हुआ, कोई पोशाक नहीं।
प्रेम का व्याकरण
बारह निकले, तो गर्मी और उमस ने हमला कर दिया। अब समझ में आया कि कुटी को किसी खास ढंग से बनाया गया था ताकि गर्मी का प्रकोप भीतर तक न जा सके। लेकिन आसमान में बादल भी जमा हो रहे थे। हम आगे बढ़े, तो मैंने पाया कि सड़क अलकतरे की नहीं थी। मिट्टी से ही एक चौड़ी-सी पगडंडी बना दी गई थी। मैंने सोचा, आगे मुख्य रास्ता मिलेगा। वह कहीं नहीं था। राह के दोनों तरफ घने और लंबे पेड़ थे, जिन पर रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे। ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी उद्यान के बीच से चले जा रहे हों। फर्क यह था कि उद्यान नियोजित होता है, उसकी काट-छांट होती रहती है, जबकि यहां की सारी शोभा प्राकृतिक थी। कहीं-कहीं रास्ते में भी पेड़ों का झुरमुट था, जिसके बीच से अपने को बचाते हुए निकलना होता था। बीच-बीच में लोग मिलते जाते थे। पुरुष और स्त्रियां। सभी उसी पोशाक में जो सुजाता ने पहन रखी थी। किसी-किसी ने सिर पर पत्तों से बनी टोपी लगा रखी थी। शायद उसे गर्मी ज्यादा लगती हो। जो भी मिलता, वह सुजाता की ओर देख कर मुसकरा देता। सुजाता भी आत्मीय मुसकान से उसका स्वागत करती। एक युवक ने तो सुजाता के निकट आ कर उसे चूम लिया। जवाब में सुजाता ने उसे प्रतिचुंबित किया। दोनों कुछ मिनटों तक ध्यानस्थ-से खड़े रहे। आगे बढ़े, तो सुजाता ने बतया, 'यह मेरा पुराना दोस्त है। आजकल रेशमा के साथ है। दोनों में खूब पटती है।' 'आपको दुख नहीं होता?' 'दुख? किस बात का दुख?' 'कि वह आपको छोड़ कर चला गया!' 'तो? इसमें हर्ज क्या है? पहले वह मेरे साथ सुखी अनुभव करता था। अब वह रेशमा के साथ ज्यादा खुश है। इसमें मेरे लिए बुरा मानना की क्या बात है? मैं तो यह चाहती हूं कि वह हर हाल में खुश रहे। हो सकता है, रेशमा से उसे कुछ ऐसी चीज मिल रही हो जो मुझमें नहीं है।' 'यह क्या बात हुई? उसने आपके साथ बेवफाई की, फिर भी आपको कोई गिला नहीं है! क्या उसके चले जाने से आपको तकलीफ नहीं हुई?' 'तकलीफ हुई, बहुत हुई। पिछले पांच वर्षों में वह मेरा सबसे प्यारा दोस्त था। इतना अच्छा गाता है कि क्या बताऊं। मेरा सारा वजूद पिघल कर बहने लगता था। इसके लिए मैं जिंदगी भर उसकी कृतज्ञ रहूंगी। इतनी विभोरता मुझे किसी ने भी नहीं दी। लेकिन चला गया तो चला गया। मैं उसकी मर्जी का सम्मान करती हूं। दुख हुआ, पर मैंने विवेक से उसे साध लिया। हमें बचपन से ही शिक्षा दी जाती है कि किसी की आजादी को कम करने की मत सोचो। इसी से तुम अपनी आजादी को बचा सकते हो। दुख आ पड़े, तो आंसू मत बहाओ। बुद्धि से काम लो और बहादुरी के साथ उसका सामना करो। वह जैसे आया था, वैसे ही चला भी जाएगा। … आपने भी तो कहीं लिखा है कि स्वतंत्रता दुख और सुख, दोनों से बड़ी चीज है।' अब मुझे याद आया कि यह मुझे कैसे जानती है। मैंने पूछ ही लिया। 'यहां आपके प्रशंसक ढेरों हैं। मैंने तो आपको समुद्र के किनारे देखते ही पहचान लिया था। हिन्दुस्तान के कई अखबारों में आपकी तसवीर छपती है। मैं तो आपका कोई भी लेख छोड़ती नहीं।' 'लेकिन हमारे यहां के अखबार यहां …' मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी। 'महीने में एक बार हिन्दुस्तान के बहुत-से अखबार, पत्रिकाएं और किताबें यहां आती हैं। उस दिन लोग टूट पड़ते हैं। फिर महीने भर बारी-बारी से पढ़ते रहते हैं। हमारे यहां चार पुस्तकालय हैं। चारों में काफी सामग्री है। खुशबू ने 'मुझे चांद चाहिए' की चर्चा नहीं की थी? हिन्दी और उर्दू, यही हमारी प्रमुख भाषाएं हैं। इधर अंग्रेजी पढ़ने का चलन बढ़ रहा है। सो अंग्रेजी का भी काफी साहित्य उपलब्ध है।' 'लेकिन यह सब आपको उपलब्ध कैसे होता है?' 'बता दूंगी। इसमें छिपाने की कोई बात नहीं है। थोड़ा धीरज रखिए। एक ही बार में सब कुछ जान लेना चाहते हैं?' वह मेरी ओर देख कर हलके-से मुसकराई। शायद वह जगह आ गई थी, जहां के लिए हम निकले थे। सात-आठ लोग दिखाई पड़े। आपस में बात करते हुए। सुजाता उन्हीं के पास चली गई। सभी की निगाह मुझ पर पड़ी, लेकिन किसी ने भी कुछ पूछा नहीं। सुजाता ने ही उनकी उत्सुकता को दूर किया, 'ये राजकिशोर जी हैं -- सुबह से मेरे मेहमान। हिंदुस्तान से आए हैं।' एक ने कहा, 'तभी …' दूसरे की टिप्पणी थी, 'आपके मेहमान हैं, तो हमारे भी मेहमान हुए।' तीसरे ने जानना चाहा, 'लेकिन इनका आना कैसे हुआ?' किसी की भी आवाज में व्यंग्य नहीं था। एक सहज दोस्ताना था -- प्रेम और विश्वास से भरा हुआ। सुजाता ने कहा, 'विस्तार से बाद में बताएंगे। अभी हम इन्हें अपने यहां की सुधार प्रक्रिया दिखाने लाए हैं। आप लोगों में से किसी को पता है, आज का मामला क्या है?' एक तनिक अधेड़ युवती ने बताया, 'राजेश नाम के एक बालक का मामला है। उस पर आरोप है कि उसने अपने बगल की कुटीर से फूलें चुराई हैं।' 'यह भी कोई मामला है? फूलें ही तो चुराई हैं, दिल तो नहीं चुराई?' सुजाता ने लास्य से कहा। 'तुआ की बात ठीक है। पर यह इस तरह की तीसरी घटना है। रीता को लगा कि कहीं इनकी आदत न खराब हो जाए। इसीलिए उन्होंने सूचना केंद्र पर रिपोर्ट लिखवा दी।' 'अच्छी बात है। मैं उन्हें सुधार केंद्र तक ले जाती हूं।' सबको बाई-बाई कर सुजाता मुझे एक बड़ी-सी झोपड़ी की ओर ले गई। झोपड़ी में कई खिड़कियां थीं, जिनसे भीतर के दृश्य देखे जा सकते थे। लेकिन ये खुड़कियां इस तरह बनाई गई थीं, जिससे भीतर तो देखा जा सकता था, पर भीतर से बाहर के दृश्य दिखाई नहीं पड़ते थे। सुजाता ने इशारा किया, तो मैं भी एक खिड़की के पास जा कर खड़ा हो गया।
जुर्म और सजा
झोपड़ी लगभग खाली थी। बीच में लकड़ी की एक कुरसी पर बीस-बाईस साल का एक युवक बैठा था। उसके सामने की कुर्सी खाली थी। युवक कभी कुर्सी पर बैठता, कभी चक्कर लगाने लगता। उसके चेहरे पर चिंता के बादल छाए हुए थे। उसे देख कर लगता था जैसे उससे कोई बहुत बड़ी गलती हो गई है और वह नहीं जानता कि उसका परिशोधन कैसे करे। कभी-कभी उसकी मुट्ठियां भिंच जाती थीं। चालीस-पैंतालीस साल की एक महिला ने प्रवेश किया। भरा हुआ शरीर। चेहरे पर तेज। उसने अपने लंबे-खूबसूरत बाल पीछे की ओर बांधे हुए थे। ऐसा लग रहा था जैसे वह कोई अधिकारी हो। दंडाधिकारी? महिला सधे हुए कदमों से युवक के पास गई और बहुत ही स्नेह से उसका भाल चूम लिया। फिर उसके सिर को अपनी गोद में ले कर सुबक-सुबक कर रोने लगी। थोड़ी देर बाद महिला ने उसका सिर उठा कर उसकी आंखों में आंखें डाल कर पूछा,'यह क्या सुन रहे हैं, बेटे!' युवक कुछ नहीं बोला। निष्पलक देखता रहा। 'बेटे, बताएंगे नहीं?' युवक चुप। 'जो कुछ हुआ, उसका परिताप तो तुआ को भी हो रहा होगा। आखिर फूलों की तो किसी भी प्रांतर में कमी नहीं है। फिर तुआ को रीता की फूलें लेने की क्या जरूरत पड़ गई? दो बार पहले भी तुआ के बारे में यह सुना जा चुका है।' महिला के चेहरे पर रोष की हलकी-सी लकीर उभरने लगी थी। अब युवक की जुबान खुली, 'पहले की हम नहीं जानते।' 'चलिए, कोई बात नहीं। रीता को भ्रम हो गया होगा। लेकिन इस ¤ÉÉ®ú…' 'इस बार मैंने फूलें ली थीं।' 'क्यों, बेटे? क्या बाहर जा कर पौधों से तोड़ नहीं सकते थे? इस प्रांतर में तो फूलें ही फूलें हैं। सुना है, प्रांतर-दो और प्रांतर-तीन के लोग भी यहां से फूलें तोड़ कर ले जाते हैं।' 'हमारी एक दोस्त अचानक हमारी घर पर आ गई थीं। हम उन्हें फूलें भेंट करना चाहते थे। समय नहीं थी। सो हम रीता की घर गए। वे वहां नहीं थीं। फूलों की एक गुच्छा रखी हुई थी। …' युवक के स्वर में तनाव था। 'बोलो, बेटे, आगे … हम जानते हैं, तुआ झूठ कभी नहीं बोलते।' 'हमने फूलें उठा लीं। इरादा यह थी कि जब हमारी दोस्त चली जाएंगी, तो हम उतनी ही फूलें तोड़ कर वहां रख देंगे। लेकिन जब हम रीता की घर से निकल रहे थे, तभी वे आ गईं। उन्होंने हमसे कुछ कहा नहीं। थोड़ी देर बाद जब हम फूल ले कर वापस लौटे, तो रीता वहां नहीं थीं।' युवक का तनाव कुछ बढ़ गया था। 'बस इतनी-सी बात है! तब तो तुआ के साथ अन्याय हुई। लेकिन आपको रीता की फूलें उठाने से पहले उनसे पूछ लेना चाहिए था। वे मना तो करतीं नहीं।' महिला मुसकरा रही थीं। 'हमसे भूल हुई। बहुत बड़ी भूल हुई। लेकिन हमारी इरादा गलत नहीं थी।' अब युवक फूट-फूट कर रो रहा था। महिला की मुसकराहट अचानक लुप्त हो गई। वह भी रुआंसी हो आई। 'चलिए, भोजन का समय हो गया। आज तुआ हमारे साथ भोजन करेंगे।' महिला ने युवक के गाल का चुंबन लिया, तो दोनों सहज हो आए। इसके आगे मुझसे देखा नहीं गया। मैंने पाया कि मेरा मन रुआंसा हो उठा है। क्या दिल्ली में, जहां मैं रहता हूं, ऐसे दृश्य की कल्पना की जा सकती है? क्या भारत में, जो मेरा अपना देश है, कहीं भी ऐसे दृश्य की कल्पना की जा सकती है? घर की ओर लौटते हुए सुजाता ने मुझे बताया, 'हमारी न्याय व्यवस्था ऐसी ही है। यहां किसी को सजा नहीं दी जाती।' 'मुझे बहुत अच्छा लगा। काश, हम भी कुछ ऐसी ही व्यवस्था अपना पाते। हमारे यहां तो … मेरा मतलब है, गलती करनेवाले को अछूत समझा जाता है।' 'यहां मेरी याददाश्त में जो सबसे गंभीर घटना हुई, उसके बारे में सुनिए। एक युवक ने एक युवती का हाथ पकड़ लिया था और उसे छोड़ नहीं रहा था। दरअसल, दोनों में पहले बहुत लगाव था। दिन भर दोनों एक साथ दिखाई पड़ते थे। फिर क्या हुआ कि युवती उससे अलग हो गई। युवक इसे बर्दाश्त नहीं कर पाया। वह अकसर युवती का पीछा करता। युवती ने कई बार उसे समझाना चाहा, पर वह बावला हो रहा था। एक दिन युवक ने अकेले में युवती का हाथ पकड़ लिया और उसे अपने घर की तरफ ले जाने लगा।' 'अच्छा, यहां भी ऐसी घटनाएं होती हैं! दिल्ली में तो ऐसी लड़कियों पर तेजाब फेंक देते हैं। या, उसकी हत्या कर देते हैं।' 'हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं होता। अव्वल तो यहां तेजाब है ही नहीं, न पिस्तौल या बंदूक है। इसलिए जान-वान लेने का सवाल ही नहीं उठता। यहां तक कि कोई किसी को धक्का तक नहीं देता। यह घटना एक अपवाद थी।' "…?' 'इस घटना पर विचार करने के लिए महासभा बैठी। महासभा यानी सभी बालिग व्यक्तियों की बैठक। किसी भी महत्वपूर्ण विषय पर फैसला करने के लिए महासभा बुलाई जाती है। इस महासभा में फैसला हुआ कि सभी लोग एक दिन का उपवास करेंगे। बच्चों ने भी उपवास किया।' 'लेकिन क्यों? दोष उस युवक का था और सजा सबने भुगती। यह तो न्याय नहीं हुआ।' 'हुआ न! हम मानते हैं कि अगर समाज के किसी व्यक्ति ने कोई भूल की, तो इसके लिए पूरा समाज दोषी है। जरूर उस व्यक्ति की शिक्षा-दीक्षा में कुछ कमी रह गई है। इसलिए इसका प्रायश्चित पूरा समाज करता है।' मैंने हंसते हुए कहा, 'मुझे क्या पता था कि यह गांधीवादियों का द्वीप है। बधाई।' 'आदाब!' उसने इस तरह सिर हिलाया जैसे मुशायरे में अच्छे शेर की तारीफ होने पर शायर उसे विनम्रता के साथ कबूल करता है। मेरी इच्छा हुई कि मैं सुजाता को चूम लूं।